कानूनों के बावजूद महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय WOMEN STILL IN MISERABLE CONDITION AFTER A HUGE NUMBER OF RULES AND REGULATIONS
भारत में महिला सुरक्षा हेतु कानूनों की एक लंबी लिस्ट है और महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय है। आखिर कहां और किसमे कमी है? क्या यह हमारे कानून निर्माताओं की कमी है या फिर कानून को लागू कराने वाली संस्थाओ की कमी है? शायद दोनों की।
कानूनों के प्रति समाज में व्याप्त अनभिज्ञता
हमारे समाज में व्याप्त कानूनों के प्रति अनभिज्ञता ज्यादा गंभीर समस्या है जो हर अपराध एवं शोषण की जननी है। हमारे समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग न सिर्फ अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान द्वारा बनाए गए कानूनों से अनभिज्ञ है बल्कि अपने अधिकारों के शोषण के वक्त सही समय पर एवम सही जगह पर पहुंचने से भी अनजान है। कोई भी पीड़ित व्यक्ति अपने अधिकारों के संरक्षण हेतु सबसे पहले पुलिस का दरवाजा खटखटाते है। जहां से उन्हें तत्काल सहायता के बजाय थानों की सीमा परिसीमा की परिभाषा बताई जाती है। फिर वो एक थाने से दूसरे थाने की दौड़ लगाते रहते है और अपराधी बच कर निकल जाते है।
कानूनी कार्रवाई एक दीर्घकालिक प्रक्रिया
हमारे देश की कानूनी कार्रवाई एक अत्यंत दीर्घकालिक प्रक्रिया है जिससे न सिर्फ पीड़ित को न्याय मिलने में देरी होती है बल्कि अपराधियों के हौसले भी बुलंद होते हैं। जिससे हमारे देश में महिलाओं के प्रति अपराध का दर घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है।
सामाजिक विचारधारा
सामाजिक विचारधारा भी हमारे देश में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों का एक मुख्य कारण है। यहां लड़कियों को जन्म से ही पराए धन के रूप में देखा जाता है। उनके जन्म पर ढोल नगाड़े नहीं बजाये जाते है, बल्कि एक ख़ामोशी सी छा जाती है।
जहां बेटियां मां बाप के लिए खुशी का कारण न होकर एक बोझ के रूप में समझी जाती है। यही कारण है कि बेटियों के विवाह के बाद मां बाप अपनी जिम्मेदारी को पूर्ण हुआ समझकर बेटियों के प्रति उदासीन हो जाते है। जैसे ही ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है वहीं बेटियों पर ससुराल पक्ष का अत्याचार बढ़ना आरंभ हो जाता है।
बेटियों की दर्द भरी सिसकियों का अंत उनकी चीर निद्रा के साथ
बेटियों की दर्द, तकलीफ भरी सिसकियों का अंत उनकी चीर निद्रा (मौत) के साथ होता है। बेटी के परिजन सिर्फ कुछ गाली गलौज के साथ-साथ रूदाली की भूमिका निभा कर शांत हो जाते है और अंत हो जाता है एक हंसती-मुस्कुराती जिंदगी का।
क्या यही है महिला सशक्तिकरण का यह नव भारत? क्या यही है महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानूनों की सूची की सार्थकता? और यदि हां, तो हर बेटी अपने जन्म के पूर्व इस धरती पर आने से घबराएगी और यही कहेगी “अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो”।
संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट
मादक पदार्थ एवम अपराध संयुक्त राष्ट्र संघ कार्यालय (UNODC) के अनुसार, पिछले साल दुनियाभर में लगभग 87 हजार महिलाओं की हत्या की गई। जिसमें से करीब 50 हजार अर्थात (58%) हत्या में उनके करीबी या परिवार के लोगों का हाथ था। इसके अनुसार अनुमानतः करीब 6 महिलाएं प्रति घंटे अपने परिवार या जानने वालों के कारण मौत का शिकार होती हैं।
घर की चहार दिवारी में भी सुरक्षित नहीं
घर की चहार दिवारी में ही जब महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं तो और कहां वो सुरक्षित रह सकती है। भारत महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश है ही लेकिन हम महिलाएं तो अपने ही घरों में अपने ही लोगों के बीच सुरक्षित नहीं है। यह कैसी विडंबना है हम महिलाओं की। यह एक अत्यंत गंभीर समस्या है। जिसका निदान हमारे अपने ही हाथों में है।
“Dedicated to those whose voice is unheard and lost in deep silence.”
मधु गुप्ता चेयरमैन
डी एस एच आर डी
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